MA Semester-1 Sociology paper-III - Social Stratification and Mobility - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2683
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

प्रश्न- धर्म (धार्मिक संस्थाओं) के कार्यों एवं महत्व की विवेचना कीजिये।

उत्तर -

धर्म (धार्मिक संस्थाओं) के कार्य एवं महत्व
(Functions and Importance of Religion)

धर्म संस्कृति का एक अंग है। यह मानव जीवन से सम्बन्धित विभिन्न कार्यों की पूर्ति करता है। यही कारण है कि प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक सभी समाजों में धर्म देखने को मिलता है। धर्म के द्वारा मानव अपने जीवन में सन्तोष एवं शान्ति प्राप्त करने का प्रयास करता है। जो समस्यायें विज्ञान द्वारा नहीं सुलझ सकीं धर्म उनको भी सुलझा देता है। स्वर्ग, नर्क, मोक्ष, पाप-पुण्य ऐसी अनेकों घटनायें हैं जो धर्म के क्षेत्र में आती हैं - विज्ञान के नहीं। धर्म नैतिक मूल्यों के महत्व को स्पष्ट करता है। नैतिकता का बोध मनुष्य में आत्म-नियन्त्रण की भावना उत्पन्न करता है। इस प्रकार वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोण से धर्म अनेक कार्य करता है। संक्षेप में धर्म के निम्नलिखित कार्यों का उल्लेख किया जा सकता हैं-

(1) सामाजिक संगठन का आधार - सामाजिक संगठन इस बात पर निर्भर करता है कि समाज के सदस्य सामाजिक मूल्यों, आदर्शों तथा निषेधों का पालन करें और अपने कर्त्तव्यों से विमुख न हों। इन सभी परिस्थितियों को उत्पन्न करने में धर्म की अपनी एक आधार - संहिता होती है जिसमें उसके सदस्यों के लिये कुछ कर्त्तव्य, आदेश व निषेध होते हैं जिसे व्यक्ति उस अलौकिक शक्ति के बल के आधार पर पूरा करता है। ईश्वर के प्रकोप से बचने हेतु व पाप, भय आदि की भावना के वशीभूत होकर व्यक्ति उन आदेशों, कर्त्तव्यों व निषेधों को पूरा करने के लिये बाध्य होता है। परिणामस्वरूप एक ही धर्म के अनुयायियों के व्यवहारों में समानता के कारण सामाजिक संगठन स्वतः पनपता है।

(2) सामाजिक नियन्त्रण का प्रभावशाली साधन - प्राचीनकाल में जब राज्य, कानून आदि औपचारिक संस्थायें नहीं थीं, विशेषकर आदिम समाजों में, तब धर्म ही एकमात्र साधन था जो अपने सदस्यों के व्यवहारों पर अंकुश रखकर समाज में नियन्त्रण बनाये रखता था। आज भी मनुष्य एक बार तो राज्य के कानूनों को तोड़ने का साहस कर सकता है। किन्तु धार्मिक नियमों का उल्लंघन कर ईश्वरीय शक्ति का कोपभाजन नहीं बनना चाहता। पुनर्जन्म की धारणा के कारण भी मनुष्य उन नियमों को तोड़ने का साहस नहीं करता है, क्योंकि वह सोचता है कि यदि इस जन्म में वह अपने कर्तव्यों का पालन करेगा तो उसे अगला जीवन भी अच्छा प्राप्त होगा। धर्म बताता है कि समाज में किस प्रकार का आचरण करना चाहिये, एक मानव के दूसरे मानव के साथ कैसे सम्बन्ध हों, परिवार के सदस्यों के पारस्परिक कर्त्तव्य क्या हों, आदि का उल्लेख धर्म में किया जाता है।

(3) व्यक्तित्व के विकास में सहायक - वास्तविकता यह है कि धर्म केवल समाज को संगठित रखता है। व्यक्तित्व का विघटन साधारणतः सांसारिक निराशाओं का परिणाम होता. है। डेविस के शब्दों में, "यदि हमारा लक्ष्य किसी विश्वास का प्रचार करना है तो राज्य शक्ति उसे असफल बना सकती है, यदि हमारा लक्ष्य अपने देश को संसार का अगुआ बनाना है तो विनाशकारी युद्ध इस पर तुषारापात कर सकता है, यदि हमारा लक्ष्य प्रसिद्धि प्राप्त करना है तो एक छोटी सी असफलता ही हमें निराश कर सकती है। इस प्रकार सभी सांसारिक लक्ष्य तरह-तरह की निराशा को जन्म देकर व्यक्तित्व को विघटित कर सकते हैं...... लेकिन कुछ लक्ष्य ऐसे भी हैं जिनको प्राप्त करने में असफलता की कोई सम्भावना नहीं होती। यह लक्ष्य 'अधिदैविक लक्ष्य है तथा यह सामाजिक जीवन में उत्पन्न निराशा को दूर करने का भी प्रयत्न करता है इस प्रकार पवित्र वस्तुओं की विद्यमानता और पवित्र संस्कारों में भाग लेना व्यक्ति को सुख ही प्रदान नहीं करता बल्कि उसके विश्वास को भी दृढ़ बनाता है।"

(4) भावनात्मक सुरक्षा - प्रत्येक व्यक्ति का भावनात्मक रूप से अपने को सुरक्षित महसूस करना उसके विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है। मनुष्य अपने जीवन में अनेक प्रकार की अनिश्चितता, निर्बलता, असुरक्षा और अभाव को महसूस करता है, ऐसे समय में धर्म मानव की एक बहुत बड़ी शक्ति बन जाता है अर्थात् धर्म ही एकमात्र ऐसी संस्था है जो व्यक्ति को अपनी परिस्थितियों से अनुकूलन करने में सहायता देती है। विज्ञान में सिद्धान्त अवश्य होते हैं, लेकिन इन सिद्धान्तों पर ही कोई व्यक्ति जीवित तो नहीं रह सकता। जीवन के लिये व्यावहारिक और अनुभवातीत (Super-empirical) लक्ष्यों की आवश्यकता होती है। ये लक्ष्य केवल धर्म के द्वारा ही प्राप्त किये जाते हैं।

(5) सामाजिक एकता में सहायक - धर्म से समाज में एकता उत्पन्न होती है। धर्म समाज कल्याण को प्रमुख स्थान देकर सामाजिक एकीकरण में वृद्धि करता है। इसके अतिरिक्त धर्म सामाजिक मूल्यों के महत्व को स्पष्ट करके भी एकीकरण में वृद्धि करता है। दुर्खीम का मत है कि धर्म उन सभी लोगों को एकता के सूत्र में पिरोता है जो इसमें विश्वास करते हैं। सामुदायिक एवं धार्मिक दंगों के समय, धार्मिक उत्सवों को मनाने के समय एक धर्म को मानने वालों में एकता देखी जा सकती है। इसके बाद भी जॉनसन के शब्दों को यहाँ ध्यान में रखना आवश्यक है, "धर्म कभी भी एकीकरण करने वाली एकमात्र शक्ति नहीं है, बल्कि यह अनेक साधनों में से एक है जो एकीकरण की प्रक्रिया में योगदान करता है। " वास्तविकता तो यह है कि यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने अधिकारों के पीछे दौड़ने लगे तो सामाजिक संगठन खतरे में पड़ जायेगा। परन्तु धर्म व्यक्ति को अपने कर्त्तव्यों के प्रति सचेत करके सामाजिक संगठन के स्थायित्व में योग देता है।

(6) सामाजिक नियमों एवं नैतिकता की पुष्टि - प्रत्येक समाज में कुछ सामाजिक नियम होते हैं, जो अलिखित होते हैं। अनेक सामाजिक नियमों को धार्मिक भावनाओं से जोड़ दिया जाता है जिसके फलस्वरूप इन नियमों को अत्यधिक बल मिल जाता है। धर्म समाज में नैतिकता बनाये रखने में सहायक है। धार्मिक नियमों में नैतिकता का भी पुट होता है। कई बार धार्मिक और नैतिक नियम एक ही होते हैं। धर्म के कारण व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य नहीं छोड़ता। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब लोगों ने धार्मिक आस्था के बल पर मृत्यु तक का हँसते-हँसते आलिंगन किया।

(7) सामाजिक परिवर्तन पर नियन्त्रण - औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के फलस्वरूप आधुनिक समाजों में तीव्रगामी परिवर्तन हो रहे हैं। परिवर्तन समाज के लिये हितकारी एवं अहितकारी दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। परन्तु सबसे अधिक समस्या मानव की इन नवीन परिस्थितियों के साथ अनुकूलन करने की होती है। अनुकूलन न कर सकने पर समाज में विघटन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे समय में धर्म अपनी रूढ़िवादी प्रवृत्ति के कारण एक तरफ तो परिवर्तन को प्रोत्साहित करता है और दूसरी तरफ व्यक्तियों में आत्मबल पैदा करता है। ईश्वर जो कुछ करता है वह अच्छा करता है, इस प्रकार विश्वास व्यक्ति को दुःख सहन करने की शक्ति और धैर्य प्रदान करता है।

(8) आर्थिक विकास में सहायक - धर्म के प्रभाव से समाज की आर्थिक व्यवस्था भी अप्रभावित नहीं रहती। मैक्स वेबर ने अपने अध्ययन द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म ने पूँजीवाद का विकास किया। इस धर्म में कुछ ऐसे तत्व थे जिसके कारण पूँजीवाद इंग्लैंड, अमेरिका व हॉलैण्ड आदि देशों में ही इतना विकसित हुआ। इसी प्रकार हिन्दू धर्म भौतिक प्रगति को कम महत्वपूर्ण मानता है, अतः हिन्दुओं की उपलब्धियाँ आध्यात्मिक क्षेत्र में अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। अतः हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार का धर्म होगा वहाँ की आर्थिक व्यवस्था भी उस धर्म की आचार संहिताओं से प्रभावित होगी।

(9) सद्गुणों का विकास - यद्यपि समाज के सभी सदस्य तीर्थस्थलों व मन्दिरों आदि में नहीं जाते, परन्तु समाज के सदस्यों पर धर्म का प्रभाव किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। यह प्रभाव प्रत्यक्ष भी हो सकता है और अप्रत्यक्ष भी। असंख्य व्यक्तियों का व्यक्तित्व व चरित्र धार्मिक विश्वासों के कारण ही बदल जाता है। इस प्रकार धर्म मानव के नैतिक व आध्यात्मिक जीवन की अभिव्यक्ति है।

(10) पवित्रता की भावना को जन्म देता है - धर्म मानव जीवन को दो भागों में बाँट देता है— साधारण एवं पवित्र धर्म व्यक्ति को अपवित्र कार्यों से दूर रखता है एवं प्रवित्र "कार्य करने की प्रेरणा देता है, क्योंकि पवित्र जीवन व्यतीत करना ही धार्मिक जीवन की अभिव्यक्ति है। धर्म में अपवित्र कार्य करने पर आत्मिक शुद्धि की व्यवस्था होती है। धार्मिक उत्सवों व त्यौहारों का आयोजन अपवित्र को पवित्र करने, साधारण को धार्मिक बनाने व धार्मिक को पवित्रता के उच्च स्तर तक पहुँचाने के लिये ही होता है। दुर्खीम के अनुसार, धर्म एक पवित्र सामाजिक आदर्श की अभिव्यक्ति है और इससे व्यक्ति के व्यवहारों तथा आचरण में निखार आता है।

(11) कर्त्तव्य का निर्धारण - व्यापक अर्थ में धर्म केवल अलौकिक दिव्य शक्ति में विश्वास ही नहीं हैं, यह तो मानव को नैतिक कर्त्तव्यों का पालन व कर्म करने की ओर प्रेरित करता है। महाभारत में भी यही सन्देश दिया गया है, 'कर्म करो, फल की चिन्ता मत करो।' हमारे यहाँ विभिन्न धर्म जैसे वर्ण धर्म, आश्रम धर्म, कुल धर्म, देश धर्म, राजधर्म, स्वधर्म और सबसे ऊँचे स्तर पर मानव धर्म माने गये हैं। इनसे प्रत्येक धर्म का अर्थ है- अपने माता-पिता की सेवा, परिवार कल्याण व सन्तानों के प्रति कर्त्तव्य। राज्य धर्म में शासक द्वारा अपनी प्रजा के कल्याण पर जोर दिया गया है। धर्मशास्त्रों के अनुसार मानव धर्म के कुछ आवश्यक तत्व हैं— सन्तोष, क्षमा, आत्म-संयम, शुद्धता, क्रोध न करना, विवेक, ज्ञान आदि।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण क्या है? सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  2. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की क्या आवश्यकता है? सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों को स्पष्ट कीजिये।
  3. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण को निर्धारित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं?
  4. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण किसे कहते हैं? सामाजिक स्तरीकरण और सामाजिक विभेदीकरण में अन्तर बताइये।
  5. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण से सम्बन्धित आधारभूत अवधारणाओं का विवेचन कीजिए।
  6. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के सम्बन्ध में पदानुक्रम / सोपान की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- असमानता से क्या आशय है? मनुष्यों में असमानता क्यों पाई जाती है? इसके क्या कारण हैं?
  8. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप का संक्षिप्त विवेचन कीजिये।
  9. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के अकार्य/दोषों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  10. प्रश्न- वैश्विक स्तरीकरण से क्या आशय है?
  11. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण की विशेषताओं को लिखिये।
  12. प्रश्न- जाति सोपान से क्या आशय है?
  13. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता क्या है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  14. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के प्रमुख घटकों का वर्णन कीजिए।
  15. प्रश्न- सामाजिक वातावरण में परिवर्तन किन कारणों से आता है?
  16. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की खुली एवं बन्द व्यवस्था में गतिशीलता का वर्णन कीजिए तथा दोनों में अन्तर भी स्पष्ट कीजिए।
  17. प्रश्न- भारतीय समाज में सामाजिक गतिशीलता का विवेचन कीजिए तथा भारतीय समाज में गतिशीलता के निर्धारक भी बताइए।
  18. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता का अर्थ लिखिये।
  19. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के पक्षों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  20. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  21. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के मार्क्सवादी दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  22. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण पर मेक्स वेबर के दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  23. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की विभिन्न अवधारणाओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
  24. प्रश्न- डेविस व मूर के सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
  25. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  26. प्रश्न- डेविस-मूर के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  27. प्रश्न- स्तरीकरण की प्राकार्यात्मक आवश्यकता का विवेचन कीजिये।
  28. प्रश्न- डेविस-मूर के रचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखिये।
  29. प्रश्न- जाति की परिभाषा दीजिये तथा उसकी प्रमुख विशेषतायें बताइये।
  30. प्रश्न- भारत में जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।
  31. प्रश्न- जाति प्रथा के गुणों व दोषों का विवेचन कीजिये।
  32. प्रश्न- जाति-व्यवस्था के स्थायित्व के लिये उत्तरदायी कारकों का विवेचन कीजिये।
  33. प्रश्न- जाति व्यवस्था को दुर्बल करने वाली परिस्थितियाँ कौन-सी हैं?
  34. प्रश्न- भारतवर्ष में जाति प्रथा में वर्तमान परिवर्तनों का विवेचन कीजिये।
  35. प्रश्न- जाति व्यवस्था में गतिशीलता सम्बन्धी विचारों का विवेचन कीजिये।
  36. प्रश्न- वर्ग किसे कहते हैं? वर्ग की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  37. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था के रूप में वर्ग की आवधारणा का वर्णन कीजिये।
  38. प्रश्न- अंग्रेजी उपनिवेशवाद और स्थानीय निवेश के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में उत्पन्न होने वाले वर्गों का परिचय दीजिये।
  39. प्रश्न- जाति, वर्ग स्तरीकरण की व्याख्या कीजिये।
  40. प्रश्न- 'शहरीं वर्ग और सामाजिक गतिशीलता पर टिप्पणी लिखिये।
  41. प्रश्न- खेतिहर वर्ग की सामाजिक गतिशीलता पर प्रकाश डालिये।
  42. प्रश्न- धर्म क्या है? धर्म की विशेषतायें बताइये।
  43. प्रश्न- धर्म (धार्मिक संस्थाओं) के कार्यों एवं महत्व की विवेचना कीजिये।
  44. प्रश्न- धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिये।
  45. प्रश्न- समाज एवं धर्म में होने वाले परिवर्तनों का उल्लेख कीजिये।
  46. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण में धर्म की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
  47. प्रश्न- जाति और जनजाति में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
  48. प्रश्न- जाति और वर्ग में अन्तर बताइये।
  49. प्रश्न- स्तरीकरण की व्यवस्था के रूप में जाति व्यवस्था को रेखांकित कीजिये।
  50. प्रश्न- आंद्रे बेत्तेई ने भारतीय समाज के जाति मॉडल की किन विशेषताओं का वर्णन किया है?
  51. प्रश्न- बंद संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  52. प्रश्न- खुली संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  53. प्रश्न- धर्म की आधुनिक किन्हीं तीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिये।
  54. प्रश्न- "धर्म सामाजिक संगठन का आधार है।" इस कथन का संक्षेप में उत्तर दीजिये।
  55. प्रश्न- क्या धर्म सामाजिक एकता में सहायक है? अपना तर्क दीजिये।
  56. प्रश्न- 'धर्म सामाजिक नियन्त्रण का प्रभावशाली साधन है। इस सन्दर्भ में अपना उत्तर दीजिये।
  57. प्रश्न- वर्तमान में धार्मिक जीवन (धर्म) में होने वाले परिवर्तन लिखिये।
  58. प्रश्न- जेण्डर शब्द की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।
  59. प्रश्न- जेण्डर संवेदनशीलता से क्या आशय हैं?
  60. प्रश्न- जेण्डर संवेदशीलता का समाज में क्या भूमिका है?
  61. प्रश्न- जेण्डर समाजीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  62. प्रश्न- समाजीकरण और जेण्डर स्तरीकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  63. प्रश्न- समाज में लैंगिक भेदभाव के कारण बताइये।
  64. प्रश्न- लैंगिक असमता का अर्थ एवं प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  65. प्रश्न- परिवार में लैंगिक भेदभाव पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- परिवार में जेण्डर के समाजीकरण का विस्तृत वर्णन कीजिये।
  67. प्रश्न- लैंगिक समानता के विकास में परिवार की भूमिका का वर्णन कीजिये।
  68. प्रश्न- पितृसत्ता और महिलाओं के दमन की स्थिति का विवेचन कीजिये।
  69. प्रश्न- लैंगिक श्रम विभाजन के हाशियाकरण के विभिन्न पहलुओं की चर्चा कीजिए।
  70. प्रश्न- महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- पितृसत्तात्मक के आनुभविकता और व्यावहारिक पक्ष का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  72. प्रश्न- जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से क्या आशय है?
  73. प्रश्न- पुरुष प्रधानता की हानिकारकं स्थिति का वर्णन कीजिये।
  74. प्रश्न- आधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है?
  75. प्रश्न- महिलाओं की कार्यात्मक महत्ता का वर्णन कीजिए।
  76. प्रश्न- सामाजिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता का वर्णन कीजिये।
  77. प्रश्न- आर्थिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता की स्थिति स्पष्ट कीजिये।
  78. प्रश्न- अनुसूचित जाति से क्या आशय है? उनमें सामाजिक गतिशीलता तथा सामाजिक न्याय का वर्णन कीजिये।
  79. प्रश्न- जनजाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ लिखिए तथा जनजाति की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  80. प्रश्न- भारतीय जनजातियों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  81. प्रश्न- अनुसूचित जातियों एवं पिछड़े वर्गों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  82. प्रश्न- जनजातियों में महिलाओं की प्रस्थिति में परिवर्तन के लिये उत्तरदायी कारणों का वर्णन कीजिये।
  83. प्रश्न- सीमान्तकारी महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु किये जाने वाले प्रयासो का वर्णन कीजिये।
  84. प्रश्न- अल्पसंख्यक कौन हैं? अल्पसंख्यकों की समस्याओं का वर्णन कीजिए एवं उनका समाधान बताइये।
  85. प्रश्न- भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति एवं समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों से क्या आशय है?
  87. प्रश्न- सीमान्तिकरण अथवा हाशियाकरण से क्या आशय है?
  88. प्रश्न- सीमान्तकारी समूह की विशेषताएँ लिखिये।
  89. प्रश्न- आदिवासियों के हाशियाकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  90. प्रश्न- जनजाति से क्या तात्पर्य है?
  91. प्रश्न- भारत के सन्दर्भ में अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या कीजिये।
  92. प्रश्न- अस्पृश्य जातियों की प्रमुख निर्योग्यताएँ बताइये।
  93. प्रश्न- अस्पृश्यता निवारण व अनुसूचित जातियों के भेद को मिटाने के लिये क्या प्रयास किये गये हैं?
  94. प्रश्न- मुस्लिम अल्पसंख्यक की समस्यायें लिखिये।

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